Monday, November 17, 2014

untitled - याह्या हसन

तुम्हे सूअर का मांस नहीं चाहिए
अल्लाह जरूर तुम्हारी खाने की
आदतों के लिए तुम्हारी तारीफ़ करेगा
तुम जुमे की नमाज़ पढ़कर अगले जुमे तक उसे भूल जाते हो
तुम रमज़ान मनाकर अगले रमजान के आने का इंतज़ार करते हो
और जुमे की नमाज़ों तथा रमज़ान के बीच
तुम जेब में छुरा रखकर घूमते हो
तुम लोगों के पास जाकर उनसे पूछते हो
कि क्या वे किसी परेशानी का सामना कर रहे हैं
जबकि असलियत यह हैं की तुम खुद
उनकी सबसे बड़ी परेशानी हो!!!!!

language - dainish 

Saturday, November 8, 2014

अभिसार - रविन्द्र नाथ टैगोर

सन्यासी उपगुप्त
मथुरापुरी की प्राचीर तले  सोया हुआ था एक बार।
वायु से नगर के दीप बुझ चुके थे,
नगर के भवनों के द्वार बंद थे,
अर्धरात्रि के आकाश में सघन  मेघों से लुप्त हो गए थे
ह्रदय में किसके नूपुरों की पदचाप  उठी !
सन्यासी चौंक कर जग गया,
पल भर में स्वप्न की जड़ता दूर हो गई,
दीपक का तीव्र प्रकाश क्षमा से सुन्दर आँखों में लगा।

यौवन मद से उन्मत नगर की नर्तकी अभिसार के लिये निकली हैं।
अंगों में नील वर्ण  साड़ी,
आभूषण रुनझुन-रुनझुन  हैं
सन्यासी के ऊपर पैर पड़ते ही रुक गई वासवदत्ता।।
दीपक एक ओर रख दिया
उसकी गौर वर्ण  लगी -
सौम्य तरुण हास्य युक्त देखकर रह गई
करुणा की किरणों से उसके नेत्र विकसित थे
शुभ्र ललाट पर इंदु-समान उद्भासित हो रही थी स्निग्ध शांति। .
ललित स्वर में बोली रमणी, नयनों में लज्जा भरी हुई थी,
'हे किशोर कुमार, मुझे क्षमा करो,
यह कठोर  धरती नही हैं तुम्हारी शय्या।'
करुण स्वर में बोला सन्यासी , 'हे लावण्य पूंजे।
अभी तो मेरा समय नही हुआ हैं।
जहाँ के लिए निकली हो, वहीँ तुम जाओ।
जिस दिन आएगा मेरा समय
मैं अपने आप पहुँचूँगा तुम्हारे कुञ्ज में। '
सहसा झंझा ने खोला अपना विकराल मुख बिजली की कौंध में।
भय से काँप उठी रमणी,
वायु में बज उठा प्रलय शंख
आकाश में बज्र परिहास के स्वर में कर उठा अट्ठहास
अभी वर्ष भी शेष नही हुआ था आ गई चैत्र संध्या।

निर्जन पथ में, ज्योत्स्ना के आलोक में हैं सन्यासी ही एक मात्र यात्री।
उसकी सिर के ऊपर तरुओं का कुञ्ज हैं,
बार-बार कोयल कूक उठती हैं,
इतने दिन बाद क्या आज उसकी अभिसार-रात्रि आ गई हैं ?
नगर छोड़कर सन्यासी बाहर चला गया
परचिर पार कर एक और खड़ा हो गया
आम्र वन की छाया के अंधकार में  ओर उनके चरणों के पास
यह कौनसी रमणी पड़ी हुई हैं ?
अत्यंत कठिन रोग के दानो से उसकी  हुई हैं।
रोग की कालिमा से उसकी पूरी देह काली पड़  गई हैं
लोगों ने उसके विषाक्त संग से बचने के लिए
नगर की परिखा के बाहर उसे फेंक दिया हैं।।
सन्यासी ने पास बैठकर  उसकर सर अपनी गोद में रख लिया हैं।
सूखे अधरों पर कमण्डल से जल डाल दिया,
उसके सिर पड़ दिया मंत्र
अपने हाथों से  लगा दिया शीतल चन्दन।।

मंजरिया जहर पड़ीं, कोकिल कूक उठी,
रात ज्योत्स्ना से हो रही हैं उन्मत।
नारी ने पूछा, 'हे दयामय, तुम कौन आ गए हो ?'
सन्यासी ने कहा, 'आज रात में समय हुआ हैं,
मैं  आया हूँ वासवदत्ता

अनुवाद - डॉ. रमाशंकर द्विवेदी 

Tuesday, November 4, 2014

प्रेम में - उमाशंकर चौधरी

प्रेम में पड़कर भागी हुई लड़की
अब लौट आई हैं अपने उसी प्रेमी के साथ
जिससे उसने अब विवाह कर लिया हैं
प्रेम में पड़कर भागी हुई लड़की के चेहरे पर हैं
ढेर सारी लाली
उसके हाथों में हैं
चूड़ियों का गुच्छा
और आँखों में हैं अपने प्रेम पर पूरा भरोसा
वह लौट आई हुई लड़की बहुत संतुष्ट हैं
नहीं समझती हैं आँखे चुराने का कोई कारण
न ही देती हे किसी को कुछ कहने-सुनने का मौका
नहीं मानने देती हैं
अपने इस भागने के फैसले को किसी तरह गलत
उस लौट आई हुई लड़की के माँ-पिता
अभी आँखे चुरा रहे हैं
वह लड़की भरे बाजार में
सौदा-सुलफ खरीद रही हैं।

Monday, November 3, 2014

bahut din main ... Gulzar

बहुत दिन मैं तुम्हारे दर्द को सीने  पे लेकर
जीभ कटवाता रहा हूँ
उसे शिव की तरह लेकर गले में,
सारी पृथ्वी घूम आया हूँ
कई युग जाग कर काटे हैं मैंने।!

तुम्हारा दर्द दाख़िल हो चूका अब नज़्म में,
और सो गया हैं
पुराने सांप को आखिर अँधेरे बिल में जाके नींद आई !!!

Thursday, October 30, 2014

एक मुलाकात - अमृता प्रीतम

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया
हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..
लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये
पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?
मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया
मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….
अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..