Saturday, November 8, 2014

अभिसार - रविन्द्र नाथ टैगोर

सन्यासी उपगुप्त
मथुरापुरी की प्राचीर तले  सोया हुआ था एक बार।
वायु से नगर के दीप बुझ चुके थे,
नगर के भवनों के द्वार बंद थे,
अर्धरात्रि के आकाश में सघन  मेघों से लुप्त हो गए थे
ह्रदय में किसके नूपुरों की पदचाप  उठी !
सन्यासी चौंक कर जग गया,
पल भर में स्वप्न की जड़ता दूर हो गई,
दीपक का तीव्र प्रकाश क्षमा से सुन्दर आँखों में लगा।

यौवन मद से उन्मत नगर की नर्तकी अभिसार के लिये निकली हैं।
अंगों में नील वर्ण  साड़ी,
आभूषण रुनझुन-रुनझुन  हैं
सन्यासी के ऊपर पैर पड़ते ही रुक गई वासवदत्ता।।
दीपक एक ओर रख दिया
उसकी गौर वर्ण  लगी -
सौम्य तरुण हास्य युक्त देखकर रह गई
करुणा की किरणों से उसके नेत्र विकसित थे
शुभ्र ललाट पर इंदु-समान उद्भासित हो रही थी स्निग्ध शांति। .
ललित स्वर में बोली रमणी, नयनों में लज्जा भरी हुई थी,
'हे किशोर कुमार, मुझे क्षमा करो,
यह कठोर  धरती नही हैं तुम्हारी शय्या।'
करुण स्वर में बोला सन्यासी , 'हे लावण्य पूंजे।
अभी तो मेरा समय नही हुआ हैं।
जहाँ के लिए निकली हो, वहीँ तुम जाओ।
जिस दिन आएगा मेरा समय
मैं अपने आप पहुँचूँगा तुम्हारे कुञ्ज में। '
सहसा झंझा ने खोला अपना विकराल मुख बिजली की कौंध में।
भय से काँप उठी रमणी,
वायु में बज उठा प्रलय शंख
आकाश में बज्र परिहास के स्वर में कर उठा अट्ठहास
अभी वर्ष भी शेष नही हुआ था आ गई चैत्र संध्या।

निर्जन पथ में, ज्योत्स्ना के आलोक में हैं सन्यासी ही एक मात्र यात्री।
उसकी सिर के ऊपर तरुओं का कुञ्ज हैं,
बार-बार कोयल कूक उठती हैं,
इतने दिन बाद क्या आज उसकी अभिसार-रात्रि आ गई हैं ?
नगर छोड़कर सन्यासी बाहर चला गया
परचिर पार कर एक और खड़ा हो गया
आम्र वन की छाया के अंधकार में  ओर उनके चरणों के पास
यह कौनसी रमणी पड़ी हुई हैं ?
अत्यंत कठिन रोग के दानो से उसकी  हुई हैं।
रोग की कालिमा से उसकी पूरी देह काली पड़  गई हैं
लोगों ने उसके विषाक्त संग से बचने के लिए
नगर की परिखा के बाहर उसे फेंक दिया हैं।।
सन्यासी ने पास बैठकर  उसकर सर अपनी गोद में रख लिया हैं।
सूखे अधरों पर कमण्डल से जल डाल दिया,
उसके सिर पड़ दिया मंत्र
अपने हाथों से  लगा दिया शीतल चन्दन।।

मंजरिया जहर पड़ीं, कोकिल कूक उठी,
रात ज्योत्स्ना से हो रही हैं उन्मत।
नारी ने पूछा, 'हे दयामय, तुम कौन आ गए हो ?'
सन्यासी ने कहा, 'आज रात में समय हुआ हैं,
मैं  आया हूँ वासवदत्ता

अनुवाद - डॉ. रमाशंकर द्विवेदी 

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